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शीर्षक कहानी ‘Baanjh’ एक ऐसी ठकुराइन/जमीदारिन की कहानी है जिसका पति उसे बाँझ समझता है और दिन रात अत्याचार करता है, जिसकी हवेली के नौकर तक उसको कुछ नहीं समझते

किताबें अंग्रेज़ी में लिखीं हों और चल निकलें तो हिन्दी पट्टी तक अनुवादित संस्करण पहुँचाना प्रकाशकों के लिए लाज़मी हो जाता है।

इसी क्रम को आगे ले जाते हुए readomania publications ने मशहूर अदाकारा सुष्मिता मुखर्जी का कहानी संग्रह बाँझ – स्त्री-मन के अधखुले पन्ने को जाने माने फिल्म समीक्षक दीपक दुआ (cineyatra) से अनुवादित करवाया है।

हर किताब की शुरुआत उसके कवर से होती है और इसके कवर पर ये कहीं नहीं लिखा है कि ये कहानी संग्रह है, ये बात ज़रा अखरती है पर कवर आर्ट सारे गिले शिकवे खत्म कर देती है। हाँ, background में पीले रंग के बजाए सफेद होता, तो यही बहतरीन आर्ट और ज़्यादा निखर आती। बैक कवर पर बाँझ के ब्लर्ब के साथ लेखिका और अनुवादक का छोटा सा परिचय और उनकी तस्वीरें इस किताब की शोभा बढ़ाती हैं।

जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, इसमें स्त्री-मन को टटोलती 11 कहानियाँ हैं। पहली कहानी शीर्षक कहानी ‘Baanjh’ एक ऐसी ठकुराइन/जमीदारिन की कहानी है जिसका पति उसे Baanjh समझता है और दिन रात अत्याचार करता है, जिसकी हवेली के नौकर तक उसको कुछ नहीं समझते।

लेकिन, अंत में कुछ आउट ऑफ़ द सिलेबस अलौकिक घटनाएँ घटती हैं और कहानी बेहतरीन से साधारण रह जाती है।

Baanjh

दूसरी कहानी ‘डिब्बा’ मुंबई के झोंपड़पट्टी इलाके से है। परिवार की असाधारण आकांक्षाओं और सीमित संसाधनों के चलते, माँ-बाप के ‘अपाहिज’ होने पर बच्चे किस तरह ज़िम्मेदार होकर कैसे-कैसे रास्तों पर चल निकलते हैं, यह इस कहानी में बहुत खूबसूरत ढंग से बताया गया है, पर अफ़सोस की इसका अंत भी बहुत हबड़तबड़ में लिखा गया लगता है और बहुत कोशिश करने पर भी पचाना मुश्किल हो जाता है।

तीसरी कहानी साकरी बाई अकेलेपन, कुंठाओं और अमीर-गरीब होने के बावजूद एक ही स्थिति में फँसी दो औरतों की कहानी है जिसमें एक खूंखार मालकिन है तो दूसरी सेवादार नौकरानी। इसका अंत बाकी दोनों काहानियों से बेहतर है।

चौथी कहानी – यादें, लाल नाक की – इस संग्रह की सबसे खूबसूरत, सबसे मारक कहानी है। इस कहानी की शुरुआत लेखिका के बचपन से होती है और अंत, झकझोर देने में सक्षम लगता है। ये इकलौती कहानी किताब के पूरे पैसे वसूल करने का माद्दा रखती है।

इसके बाद कागज़ का टुकड़ा भी अच्छी कहानी है लेकिन ये उस class की कहानी है जहाँ तक अमूमन भारतीयों की पहुँच नहीं। जहाँ शादी हो या तलाक, एक कागज़ का टुकड़ा भर है! पर अच्छी कहानी है।

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लेकिन जो फ़ील, जो असर – यादें, लाल नाक की – छोड़ती है, वो बात इनमें से किसी कहानी में नहीं नज़र आती।

भाषा शैली की बात करूँ तो अनुवादक साहब दीपक दुआ जी ने कुछ एक शब्दों को छोड़ कहीं ये ज़ाहिर नहीं होने दिया है कि ये अनुवाद है। इसे सरल सहज रखने के साथ-साथ मर्यादित भी रखा है और कहीं-कहीं कोई-कोई शब्द जस का तस अनुवाद करके भी है। हालाँकि एक जगह – उत्तेजित – शब्द थोड़ा अखरता है, अपनी सहेली की पार्टी में जाने के लिए कोई महिला उत्साहित हो सकती है, उत्तेजित शब्द यहाँ गैर-ज़रूरी लगता है।

चरित्र-चित्रण की बात करूँ, पात्रों के बारे में लिखूँ तो इन 11 कहानियों में हर वर्ग, हर समाज की स्त्रियों के मन को लेखिका ने टटोला है। ज़्यादातर कैरेक्टर्स अनोखे और गहरे लिखे गए हैं। कहानी ‘डिब्बा’ में 9 बरस की सुधा सबसे सुंदर, सबसे दिलचस्प पात्र है।

वर्तनी और सम्पादन के बारे में इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि पूरी किताब में कहीं चंद्रबिन्दु शीर्षक के अलावा कहीं नज़र नहीं आया। शायद अब हिन्दी के सम्पादक चंद्रबिन्दु की कद्र नहीं करते। शीर्षक में भी front cover पर चंद्रबिन्दु के साथ ही बाँझ लिखा है लेकिन back cover पर वो बांझ हो गया है। इसको नज़रंदाज़ करूँ तो वर्तनी की न के बराबर कमियाँ हैं, हाँ, सम्पादन के समय कहानियों का क्रम बेहतर किया जा सकता था।

इसकी कीमत MRP के हिसाब से 199 रुपए और इसमें कुलजमा 95 पृष्ठ हैं, इस लिहाज़ से इसकी कीमत कुछ ज़्यादा है पर उम्मीद है discount आदि के बाद किताब 150 रुपए के आस-पास मिल सकती है।

कुलमिलाकर सुष्मिता मुखर्जी कृत ‘बाँझ’ स्त्रीमन को टटोलता, उनके सपनों और ज़िम्मेदारियों के बीच होती प्रतिस्पर्धा पर ध्यान आकर्षित करता पढ़ने योग्य कहानी संग्रह है। इसमें से कुछ कहानियों में फिल्मी भाव साफ नज़र आता है जो इतने वर्षों से इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में बतौर मकबूल अदाकारा सुष्मिता मुखर्जी को देखते हैरान नहीं करता। अनुवादक दीपक दुआ ने ऐसे शब्दों का चयन किया है जिससे कहानी की आत्मा भी जीवित रहती है और पढ़ने वाले को असहज भी नहीं होना पड़ता।

मुझे लगता है कि ऐसे संग्रह, ऐसी किताबें निरंतर आती रहनी चाहिए।

आपको समीक्षा अच्छी लगी हो तो आप इसे अपने पढ़ाकू दोस्तों तक शेयर करे सकते हैं। (इसका कोई अतिरिक्त शुक्ल नहीं है 😉

सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’

Baanjh की समीक्षा प्रभात खबर अखबार में छप चुकी है –

banjh review


सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'

मैं सिद्धार्थ उस साल से लिख रहा हूँ जिस साल (2011) भारत ने वर्ल्डकप जीता था। इस ब्लॉगिंग के दौर में कुछ नामी समाचार पत्रों के लिए भी लिखा तो कुछ नए नवेले उत्साही डिजिटल मीडिया हाउसेज के लिए भी। हर हफ्ते नियम से फिल्म भी देखी और महीने में दो किताबें भी पढ़ी ताकि समीक्षाओं की सर्विस में कोई कमी न आए।बात रहने की करूँ तो घर और दफ्तर दोनों उस दिल्ली में है जहाँ मेरे कदम अब बहुत कम ही पड़ते हैं। हालांकि पत्राचार के लिए वही पता सबसे मुफ़ीद है जो इस website के contact us में दिया गया है।

4 Comments

  1. विकास नैनवाल
    June 1, 2022 @ 8:52 PM

    किताब रोचक लग रही है। हाँ कीमत जरा ठिठकने में विवश कर देती है। देखते हैं किंडल पर आती है या नहीं।

    Reply

  2. Ashish Dalal
    June 1, 2022 @ 10:53 PM

    बहुत बहुत सुन्दर

    Reply

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