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ज़रा हट के ज़रा बच के (ZHZB) मुझे बीते दौर की याद दिलाती है। जब अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, ऋषि कपूर जैसे दिग्गजों को डायरेक्ट/प्रोड्यूस करने के लिए यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई, हीरु जौहर, शक्ति सामंत, रमेश सिप्पी जैसे महान फिल्ममेकर्स मौजूद होते थे।

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वहीं इनके साथ साथ ही, सेम सड़क पर किनारे-किनारे विनोद मेहरा, फ़ारुख शेख, अमोल पालेकर जैसे ज़मीन से जुड़े कलाकार भी होते थे, जिन्हें दिशा दिखाने के लिए ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, श्याम बेनेगल, गुलज़ार जैसे काबिल डायरेक्टर्स/फिल्म मेकर्स आगे आते थे।

हालाँकि इसमें ऋषि दा अपवाद हैं क्योंकि वह राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र जैसे बड़े नामों को भी अमोल पालेकर जैसा, ‘द बॉय नेक्स्ट डोर’ बना देते थे।

इन फिल्मों की खासियत ये होती थी कि इनमें आम मध्यम वर्गीय ज़रूरतें, मध्यम वर्गीय मुहब्बतें और वैसे ही मिडिल क्लास वाले सोल्यूशन्स होते थे। थोड़ा है ‘थोड़े की ज़रूरत है, ज़िंदगी, फिर भी यहाँ, खूबसूरत है’ के फलसफे पर फिल्में बनती थीं।

आज के समय में, हम मध्यम वर्गीय नागरिकों को ध्यान में रखते हुए दिनेश विजान यानी maddock films वो बीता दौर दोहरा रहे हैं। फिर वो हिन्दी मीडियम हो, मिमी, हम दो हमारे दो हो, अंग्रेज़ी मीडियम हो या अब लैटेस्ट – ‘ज़रा हट के ज़रा बच के’ हो।

ZHZB की कहानी

zhzb

इसमें एक कपिल दुबे उर्फ कप्पू है (पक्का ये कपिल शर्मा से इन्सपाइर होकर नाम रखा है) और एक है उसकी पत्नी सौम्या दुबे, सॉरी सॉरी, सौम्या चावला दुबे। ये इंदौर की एक जॉइन्ट फैमिली में रहते हैं। इनकी शादी को दो साल हो चुके हैं पर अबतक कोई बच्चा नहीं है, क्योंकि… क्योंकि बीते छः महीने से कप्पु के मामा-मामी इनके कमरे पर कब्ज़ा कर चुके हैं और ये दोनों बिचारे हॉल में सोते हैं।

अब सौम्या को हर हाल में अलग घर लेना है। पर घर तो कमाई से कहीं ज़्यादा महँगा है। अब क्या करें?

अब इनको पता चलता है कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत इन्हें घर मिल सकता है पर उसमें भी एक मुसीबत है, कप्पू का घर उसके पिताजी के नाम है और जिस विदाउट ‘कैटेगरी’ वाले का आल्रेडी पक्का घर हो, भले ही पिता के नाम हो, उसे घर नहीं मिल सकता।

अब क्या करें?

अब भगवान दास इन्हें बताता है कि अगर तुम तलाक ले लो, तो सौम्या को आवास योजना की lottery में घर मिल सकता है!

दादा रे, ये दोनों तलाक कैसे ले लें? ये शादी के दो साल बाद भी ऐसे रोमांस करते हैं कि मानों कॉलेज में हों। इन्हें देखकर तो जज मना कर देता है कि ऐसे प्रेमी जोड़े को भला यूँही तलाक कैसे दे दूँ…

अब तलाक नहीं मिलेगा तो घर कैसे मिलेगा?

इसी उधेड़बुन में, मुझे भीम सैन की बेहतरीन/शानदार फिल्म घरौंदा (1977) याद आ जाती है। साथ ही साथ, साकेत चौधरी की हिन्दी मीडियम से भी ये ZHZB रिलेट होने लगती है।

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जल्द ही समझ आने लगता है कि क्लाइमैक्स कहाँ जाकर होगा, लेकिन फिर भी अंत मज़ेदार लगता है। फिल्म इन्टरवल तक ज़रा-बहुत लाउड होकर ही सही, हँसाती है।

इन्टरवल के आधे घंटे बाद फिल्म सीरीअस होती है और अंत तक आँखें भिगोने लायक काफी मटीरीअल दे देती है।

एक्टिंग से पहले केमेस्ट्री की बात करें तो विकी कौशल और सारा अली खान सच में पति पत्नी लग रहे हैं। इनका खूबसूरत, साफ सुथरा रोमांस देख मेरा मन होने लगा था कि मैं भी इसी साल शादी कर लूँ।

एक्टिंग की बात करेन तो –

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विकी कौशल एक एक्टर के रूप में हर बार सरप्राइज़ करते हैं। लास्ट फिल्म उधमसिंह देखी थी, उसमें उनकी एक्टिंग का अलग लेवल था, इसमें विकी ने एक ऐसे कंजूस लेकिन थोड़े में खुश रहने वाले पति का किरदार निभाया है कि वाकई लगता है ये बिचरा 1 रुपये से ज़्यादा टिप किसी को न देता होगा।

वहीं सारा फिर एक बार वही नकचड़ी लड़की के रोल में हैं। केदारनाथ हो या अतरंगी रे, सारा में कुछ नहीं बदला। फिर भी अच्छी लगती हैं।

वहीं इनामुलहक और वकील बने हिमांशु कोहली बहुत ज़्यादा लाउड होते हैं, इनके dialogues औसत बुद्धि को हँसा तो सकते हैं, पर बार-बार देखने पर मजबूर नहीं कर सकते।

लेकिन, राकेश बेदी सरदार बने असरदार नज़र आए हैं। आकर्ष खुराना भी छोटे से रोल में बढ़िया लगे हैं। सपोर्ट में सुष्मिता मुखर्जी, नीरज सूद, कानुप्रिया पंडित और अनुभा फतेहपुरा अच्छे लगे हैं।

शारिब हाशमी दरोगा बने interval के बाद प्रकट हुए हैं और बिल्कुल वैसे ही लगे हैं जैसे असुर या फैमिली मैन में थे।

सृष्टि गांगुली के इक्स्प्रेशन, उनकी लुक, सब शानदार है। भविष्य में उन्हें बड़े-बड़े रोल मिलें तो उनका टैलेंट और बेहतर तरीके से देखने को मिल सकता है।

डायरेक्टर लक्ष्मण उतेकर मिमी में अपना कमाल दिखा चुके हैं। पर यहाँ ज़्यादा कलाकारों और लिमिटेड कहानी के चलते इन्टरवल के बाद कुछ भटके, कुछ खानापूर्ति करते नज़र आए हैं। फिर भी छोटी छोटी चीज़ों पर, डेली रूटीन कान्फ्लिक्ट्स और अजस्टमेंट पर अच्छा काम किया है।

पेड़ पर बना घोंसला और रोडसाइड फूड स्टॉल के छोटू वेटर के पंच सीन अच्छे हैं।

राइटर मैत्रेय बाजपायी और रमीज़ इल्हाम ने हर संभव कोशिश की है कि फिल्म फनी लगे। हर मौके पर ट्विस्ट रहें, हालात टफ से टफेस्ट हों और इसके लिए कम समय में जो भी स्लैपस्टिक कॉमेडी पॉसिबल थी, वो लिखी गई है।

इसी वजह से, ज़रा हट के ज़रा बच के (ZHZB) हिन्दी मीडियम से थोड़ी दूर रह जाती है।

इसका म्यूजिक अच्छा है, पर क्योंकि ये फिल्म भीम सैन की घरौंदा बार-बार याद दिलाती है, तो घरौंदा के शानदार गाने और बेहतरीन म्यूजिक से इसकी तुलना अपने आप ही हो जाती है। अरिजित की आवाज़ में फिर और क्या चाहिए अच्छा गाना है, पर इतनी बार फिल्म में बजा है कि बोर करता है।

बाकी गानों का होना न होना बराबर सा है। अफ़सोस की सचिन जिगर के म्यूजिक में इस बार वो जादू नहीं है जो अमूमन सुनने को मिलता है।

एडिटिंग के मामले में भी फिल्म थोड़ी सी बड़ी, कम से कम 15 मिनट ज़्यादा लगती है।

कुलमिलाकर नवयुवा जोड़ों के लिए एक एनर्टैनिंग फिल्म है, परिवार के साथ रविवार मनाने के लिए बुरी चॉइस नहीं है। इसमें हँसी मज़ाक है, छेड़छाड़ है, एक बढ़िया मैसेज है, सरकारी योजना के बारे में जानकारी है और ढेर सारा रोमांस है।

इसके इतर, कुछ मेरे मन की बात कि –

जब दो लोग वाकई एक दूसरे के लिए जीते-मरते हैं तब उनके लिए एक दूसरे का होना ही घर का होना होता है। मुझे नहीं लगता कि कोई भी चीज़, कोई भी बड़ी से बड़ी वस्तु इतनी बड़ी हो सकती है कि दो लोग उसे अलग होने की शर्त पर पाने की चाहत करें।

और जो ऐसा करते हैं, उनका क्या हश्र होता है ये हम बरसों पहले आई अनिल कपूर, श्रीदेवी की फिल्म जुदाई में देख चुके हैं।

रिव्यू इस बार थोड़ा बड़ा हो गया है, पर अच्छा न लगा हो तो कमेन्ट में ज़रूर बताएं, अच्छा लगा हो तो भी बताएं।

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सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’


सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'

मैं सिद्धार्थ उस साल से लिख रहा हूँ जिस साल (2011) भारत ने वर्ल्डकप जीता था। इस ब्लॉगिंग के दौर में कुछ नामी समाचार पत्रों के लिए भी लिखा तो कुछ नए नवेले उत्साही डिजिटल मीडिया हाउसेज के लिए भी। हर हफ्ते नियम से फिल्म भी देखी और महीने में दो किताबें भी पढ़ी ताकि समीक्षाओं की सर्विस में कोई कमी न आए।बात रहने की करूँ तो घर और दफ्तर दोनों उस दिल्ली में है जहाँ मेरे कदम अब बहुत कम ही पड़ते हैं। हालांकि पत्राचार के लिए वही पता सबसे मुफ़ीद है जो इस website के contact us में दिया गया है।

5 Comments

  1. Leena
    June 3, 2023 @ 8:59 PM

    बढ़िया !
    कर लो फिर इस साल शादी
    शादी का ख़ाना ख़ाना है।

    Reply

  2. Awdhesh Tiwari
    June 3, 2023 @ 10:38 PM

    मुझे तो इस फिल्म से कोई उम्मीद ही नही थी लेकिन अब आपने रिव्यू दे ही दिया है पॉजिटिव वाला तो देखूंगा तो जरूर…मगर

    मगर मैं अपने दिल का क्या करू की सारा मुझे दूसरी आलिया भट्ट लगती है…मतलब की इन्हे देखकर मुझे बचपन की नाक बहाती लड़कियों की छवि नजरो के सामने नाचने लगती है और फिर …फिर

    अच्छे से अच्छा रिव्यू भी इन दोनो की वजह से फिल्म के 70 प्रतिशत मार्क तो काट ही लेता है

    तो अब 30 प्रतिशत में आपका रिव्यू का 70 प्रतिशत जोड़कर देखना सिद्धार्थ जी…,

    अब असुर 2 का भी रिव्यू दे डालते आप तो अच्छा होता…

    इंतजार में रहूंगा

    Reply

  3. Atul Pathak
    June 21, 2023 @ 1:38 PM

    आपके review के बाद फिल्म देखने का मजा दोगुना हो जाता है. ये फिल्म देख चुका हूँ. अब घरौंदा देखेंगे. 🙏

    Reply

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