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Kay Kay Menon किस तरह मिलकर निकले थे। तो एक सुर में आवाज़ आएगी। उस मुलाकात से नफरत हो जाएगी। 

अक्सर सोशल मीडिया के गलियारें में देखा होगा कि राष्ट्रवादी विंग द्वारा बॉलीवुड फिल्म शौर्य का क्लाइमैक्स, जिसमें अभिनेता Kay Kay Menon का संवाद रहता है, साझा किया जाता रहा है।

दरअसल, बॉलीवुड लेखक समर खान, अपर्णा मल्होत्रा और जयदीप सरकार ने हॉलीवुड फिल्म प्योर कोर्टरूम ड्रामा अ फ्यू गुडमैन को अडॉप्ट किया है। हिंदी वर्जन में लेखकों ने इसकी कहानी में बदलाव किया है। इसके प्लॉट को जम्मू-कश्मीर में रखा। कुछ किरदारों को भी इधर-उधर किया है। 

Kay Kay Menon

लेखक-निर्देशक महोदय ने इस फ़िल्म के बहाने भारतीय सेना को खलनायक बतलाने की पुरज़ोर कोशिश की। पूरी तरह प्रोपगैंडा बिछाया गया। ताकि सिनेमाई पटल से संदेश दिया जाए। भारतीय सेना जम्मू कश्मीर में कितना अत्याचार व जुल्म कर रही है। लेखक ने डायलॉग को अच्छे और वजनदार संवाद दिए थे। 

लेकिन….लेकिन! निर्देशक व कास्टिंग निर्देशक भारी गलती कर बैठे। जो फ़िल्म के विलन ब्रिगेडियर रुद्र प्रताप सिंह (ऐसा लेखकों में लिखा था। उसे साम्प्रदायिक रंग दिया गया।) की मुलाकात मंझे और उम्दा कलाकार Kay Kay Menon से फिक्स करवा दी। यह तो भारतीय सिने इतिहास द्वारा विदित है कि जब Kay Kay Menon अपने किरदारों से मिलते है न! कोई गैप खाली नहीं छोड़ते है। किरदार में घुल-मिल जाते है। यकीन न हो तो 2004 में आई दीवार- लेटस ब्रिंग आवर हीरोज होम फ़िल्म के पाकिस्तानी सैनिक मोहम्मद सोहिल जफर से पूछ लो। Kay Kay Menon किस तरह मिलकर निकले थे। तो एक सुर में आवाज़ आएगी। उस मुलाकात से नफरत हो जाएगी। 

Kay Kay Menon

ब्रिगेडियर रुद्र प्रताप के साथ मेनन की मीटिंग फिक्स हो गई। पूरी फिल्म लेखक-निर्देशकों के इशारे पर चली। परन्तु, जब कहानी क्लाइमैक्स में प्रोपगैंडा मेसेज को दर्शकों के बीच छोड़ने वाली थी कि उस वक्त आखिरी मोनोलॉग मेनन के हिस्से में लिखा पड़ा था। जब रुद्र और मेनन ने अपना आखिरी मोनोलॉग पत्ता बाँचा तो दर्शक पूरी फिल्म को भूल बैठे। सिर्फ़ उसी दमदार संवाद को घर लेकर निकले। जो Kay Kay Menon ने ब्रिगेडियर के जरिये दर्शकों को परोसी थी। उसके अलावा फिल्म में क्या था। कैसा था। उससे उन्हें कोई सरोकार न रहा। या कहे न रखा।

Kay Kay Menon ने अपने बेहतरीन अभिनय जौहर से कंटेंट का प्रोपगैंडा ध्वस्त कर दिया। इसका अंदाजा फ़िल्म लेखक-निर्देशक और निर्माताओं को कतई न रही होगी। कि जब दर्शक फ़िल्म देखेंगे तो उन्हें सिर्फ़ ब्रिगेडियर का डायलॉग ही प्रभावित करेगा। बाक़ी फ़िल्म कोई मायने न रखेगी।

यक़ीनन! इस फ़िल्म के बाद निर्देशक ने माथा पकड़ लिया होगा कि कौनसी घड़ी में Kay Kay Menon को किरदार पकड़ा आया। सिर्फ़ एक किरदार ने पूरे ईको को बदलकर रख दिया। वैसे जेएनयू भारतीय सेना को खलनायक के तौर पर प्रॉजेक्ट कर चुका था। धीरे धीरे सिनेमाई तकनीक द्वारा इसे दिखाया जाने लगा। शौर्य उसी कड़ी का हिस्सा थी। जिसे मेनन नेचुरली चूर चूर कर दिया। बिखेर कर रख दिया। अब लेखक-निर्देशक कैसे उसे समेटे और उसका महत्व कर करे। दर्शकों ने तो उसे ही पकड़ना था।

Kay Kay Menon

इसलिए प्रोपगैंडाधारियों को अपनी कहानी और उनके किरदारों में Kay Kay Menon सरीखे कलाकार न रखने चाहिए। वरना ऐसे ही बिखराव होते रहेंगे। 

Kay Kay Menon की अपने किरदारों से मिलने की खूबी फ़िल्म के कंटेंट को बर्बाद कर सकती है। क्योंकि वे जिस किरदार को लेते तो उसे सुनते तो लेखक-निर्देशक के दृष्टिकोण से है। लेकिन जब इम्प्लीमेंट करते है। तो वे लेखक-निर्देशक से बहुत दूर जा चुके होते है। क्योंकि मेनन की अपने किरदार से मिलने की तैयारी ही अहम है। 

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देखिए, मेनन के चेहरे पर रुद्र प्रताप के भाव और अपने देश के लिए भक्ति, ऐसी भक्ति जिस फ़िल्म के लेखक व निर्देशक लिख तो गए। लेकिन कंट्रोल करना न सीखें। महाभारत में अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा पर ब्रह्मास्त्र तो चला दिया था। लेकिन उसे ब्रह्मास्त्र को वापस लौटाना नहीं आता था। इसी तरह लेखक कहानी व किरदार अवश्य गढ़ जाते है। लेकिन उसकी रेंज को कलाकार ही समझ सकता है। जब कलाकार उस किरदार से मिलता है और उसकी कहानी को सच्चे भाव से सुनता है न, तब मेनन की तरह बहुत आगे निकल जाता है। जहाँ सबकुछ पीछे छूट जाता है। यहाँ से लेखक-निर्देशक उसे लौटा ले। ऐसा असंभव है। 

Kay Kay Menon

एडिटिंग टेबल पर जरूर उसे निष्प्रभावी करने की कोशिश कर सकते है। लेकिन उससे फ़िल्म का मूल खत्म हो जाना है। 2008 में ब्रिगेडियर रुद्र प्रताप सिंह के शौर्य ने फ़िल्म की सारी इच्छाएं पैकअप करवा दी। कोई नैरेटिव बाहर न छोड़ा।

ये लेखक के निजी विचार है।

ओम लवानिया ‘प्रोफेसर’

 


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