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Kantara Review: फिल्म क्रिटिक के लिए दो तरह की फिल्में होती हैं, एक वो जिनमें इस्तेमाल हुई कहानी, संगीत, कला, कॉस्टयूम आदि की वो तारीफ कर सकते हैं। और दूसरी वो जिनमें इन्हीं कहानी, कला, संगीत, कॉस्टयूम, निर्देशन आदि में से कमियाँ निकाल सकते हैं। लेकिन अब मैं तीसरी किस्म की फिल्म देख चुका हूँ।

Kantara की कहानी 1847 से शुरू है। एक राजा जिसके पास सबकुछ है पर सुकून नहीं है। उसे चैन की नींद नहीं आती। आज से पहले कभी ऐसा मुद्दा सुना है?

अमूमन राजाओं को संतान नहीं हो रही होती या कोई जंग जीतनी है और सेना नहीं मिल रही होती। पर यहाँ, सनातन सभ्यता का वो आशीर्वाद, जो घर-घर में सहज ही दिया जाता है; सुख-शांति, इस राजा के पास नहीं है। राजा एक पुरोहित के कहने पर इस सुकून की खोज में निकलता है। अब फिर एक मेटाफर समझिए, पुरोहित ने राजा को बताया है कि तुम्हें माँ-पिता सा वात्सल्य मिले, तुम सिर्फ वहाँ सुकून पा सकते हो। और.. ये Kantara की यात्रा तुम्हें अकेले करनी होगी।

Kantara की यात्रा में देव भी हैं और दानव भी

इस यात्रा के दौरान राजा को Kantara में एक शिला मिलती है, इस शिला की आकृति किसी वराह, यानी जंगली सूअर जैसी है। यहाँ पहुँचकर राजा को अजीब सा सुकून मिलता है। पर ये Kantara के आदिवासियों के दैव हैं। वो इस शिला को नहीं ले जाने दे सकते!

पर राजा भी अडिग है, उसे ये शिला चाहिए, चाहें आदिवासी जो माँग लें। आदिवासी ये फैसला देव पर छोड़ देते हैं और दैव.. वो अपने पूजने वाले में शामिल हो राजा से आदिवासियों के लिए जमीन माँगते हैं। राजा सहर्ष दे देता है।

आगे 120 साल तक सुकून शांति रहती है पर, अब नई पीढ़ी को, 1970 में, ये ज़मीन वापस चाहिए। राजा की इन संतानों की नज़र में, दैव-पैव सिर्फ एक ड्रामा है, असल मकसद तो ज़मीन लूटना है।

पर नहीं, दैव एक छोटा सा चमत्कार दिखाते हैं और कहानी 1990 में पहुँच जाती है। 

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अब ये ज़मीन राजा और आदिवासियों की ही नहीं, फॉरेस्ट डिपार्ट्मन्ट की भी हो गई है। अब ज़मीन के तीन दावेदार हैं। लेकिन अब कहानी ज़मीन की न होकर, इंसान की हो गई है। इसके आगे बहुत कुछ बताने से मुझे कोई गुरेज नहीं, पर अब आगे बताने के लिए मुझे एक-एक सीन पूरे कैमरा ऐंगल के साथ यहाँ लिखना होगा।

Kantara

ऋषभ शेट्टी ने लेखन और निर्देशन दोनों में, गजब का एक्सपेरिमेंट किया है। इसे अच्छा-बुरा कहने से कहीं ज़्यादा हिम्मती कहना सही होगा। एक छोटी सी बात देखिए, अमूमन किसी फिल्म में रेस या ऐसी कोई प्रतिस्पर्धा दिखाते हैं जिसमें हीरो शामिल हो, तो उसमें हीरो बिल्कुल अंत में आता है और बाकी सबको बीट कर बेस्ट का दर्जा ले जीत जाता है। पर नहीं, Kantara में हीरो तीसरे-चौथे नंबर पर ही आता है, और उसके बाद होती रेस का आनंद लेता है।

हीरो को हीरो न बना, एक कैरेक्टर बनाने के लिए भी ऋषभ शेट्टी की वाह-वाह होनी चाहिए। एक्शन सीन्स को टिपिकल साउथ इंडियन न बनाकर, Brutal, Realistic और highly effective बनाए हैं। ऋषभ ने खुद दो ऐसे नॉर्थ-साउथ जैसे रोल किए हैं कि पहली नज़र में पहचानना ही मुश्किल है कि पिता के रोल में भी ऋषभ खुद ही थे।

फिर भी, acting के मामले में कुछ एक जगह ऋषभ लाउड भी हुए हैं और ओवर भी कर गए हैं। लाउड होना तो चलता है, साउथ फिल्म है, पर इतने अच्छे act के बीच में ओवर होना कहीं कहीं खल जाता है।

वहीं सप्तमी गोड़ा इस Kantara की सबसे कमज़ोर actor हैं, बाकी साउथ फिल्मों के मुकाबले इस फिल्म में फीमेल लीड का रोल important था, पर सप्तमी उसे प्रभावशाली तरीके से निभा न पाईं।

लेकिन kantara के अच्युत कुमार ने एक रुपये की शिकायत का भी मौका नहीं दिया। पूरी फिल्म में छाए रहे।

किशोर की पर्सनैलिटी कुछ-कुछ डिवेन जॉनसन यानी हॉलिवुड के रॉक से मेल कहा रही थी। उनका रोल भी बहुत शानदार था। उनकी पर्सनैलिटी देख लगा कि पुष्पा में पुलिसिए रोल के लिए फासिल से बेहतर किशोर लगते।

मानसी सुधीर की आँखें बोलती हैं, कुछ तो मेकअप उनका, और फिर बॉडीलैंग्वेज भी, कमाल!

साथी कलाकार शनील गुरु, प्रकाश थुमिनाड, स्वराज शेट्टी, दीपक राय, सब ऐसे अपने रोल में फिट थे कि मानो किरदार में समा गए हों।

यहाँ किरदारों के साथ-साथ कॉस्टयूम डिजाइनर प्रगति शेट्टी की भी तारीफ बनती है। फिल्म को 1990 का बनाने के लिए, कॉस्टयूम और मेकअप ने क्या ज़बरदस्त गठबंधन किया है। दरानी गंगेपुत्रा ने इतना शानदार सेट सजाया है, खासकर तौर से tree house और राजा की हवेली, कि देखने वाला भूल ही जाता है कि वो एक फिल्म देख रहा है, लगने लगता है कि ये सब वाकई किसी गाँव में हो रहा है। 

Kantara

इस पर सोने का सुहागा बनी अरविन्द कश्यप की सीनेमेटोग्राफी है। अमूमन साउथ इंडियन सिनेमा की “हिला डालो” कैमरा टेक्नीक से मुझे कोफ्त होती है क्यों कि बार-बार एंगल change करता कैमरा सिरदर्द कराने लगता है। पर अरविन्द ने इतनी खूबसूरती से जंगल और ज़मीन के बीच शॉट्स लिए हैं कि फिर वही बात, ये ध्यान ही नहीं रहता कि ये कोई फिल्म है।

पर, अजनीश लोकनाथ का music background में तो शानदार है। लेकिन जब-जब वराह रूपम बजा है, तब-तब याद आया है कि ये नवरसम से उठाया गया है। पर इतना शानदार म्यूजिक है कि original maker थाइकूड़म ब्रिज की तारीफ किये बिना मन नहीं मानता। एक अच्छी बात ये भी है कि हिन्दी में गानों को डब नहीं किया गया है, 5 की बजाए 2 कर दिए हैं पर जस के तस हैं।

ढाई घंटे की ये Kantara, ओवर तो बिल्कुल नहीं लगती पर हाँ, शुरुआत की कहानी को, खासकर 1970 की घटना को थोड़ा और समय देकर 1990 में से एक-सवा सीन काटे जा सकते थे।

बहरहाल, तो मैं बता रहा था कि दो तरह की फिल्में होती हैं, एक जिनकी तारीफ होती है और दूसरी जिनसे कमियाँ निकलती हैं। पर कान्तारा तीसरे किस्म की फिल्म है जिसमें तारीफ और कमियों से इतर, एक नयापन और एक्सपेरिमेंट तो दिखता ही है, साथ-साथ गाँव-ग्राम में गुम होती जा रही दंत-कथा भी नज़र आती है। जल-जंगल-ज़मीन का मुद्दा भी अच्छे से सामने आता है तो अलौकिकता और श्रद्धा का समागम करता क्लाइमैक्स भी मिलता है।

अंत में, ऋषभ शेट्टी की acting, उनका makeup और action choreography सिनेमा hall से निकलने के बाद भी दिमाग में छपी रह जाती है। मन से एक ही आवाज़ निकलती है, अद्भुत!

कांतारा must watch है उनके लिए जो – नए किस्म का सिनेमा देखने की हिम्मत और patience रखते हैं, जिन्हें संगीत की समझ है, जिन्हें पता है कि कला निर्देशन किस चिड़िया का नाम है और उन्हें जिन्हें, तुम्बाड़ बहुत पसंद आई थी।

कांतारा उन्हें देखने से बचना चाहिए जो – तेज़ साउन्ड नहीं सह सकते, जिन्हें खतरनाक face paints से डर लगता है, जिन्हें ज़्यादा दिमाग लगाना पसंद नहीं, सतह पर रहकर फिल्म देखते हैं या जिन्हें लॉजिक से ऊपर कुछ नहीं सुहाता।

और हाँ, ये तो पूछिए कि Kantara में आखिर Kantara है क्या?

वो जो जंगल है, उसका नाम Kantara जंगल है। कर्नाटक के इन्हीं जंगलों में 16 करोड़ में बनी ये फिल्म, 250 करोड़ रुपये अब तक कमा चुकी है और… गिनती अभी जारी है। 250 स्क्रीन से शुरू हुई ये फिल्म, हफ्ते भर पहले 3000 स्क्रीन्स के आसपास थी।

Rating – 8.5/10* (ऐसी कहानी लिखने, बनाने और act करने के लिए ऋषभ शेट्टी को .5 extra)

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सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’


सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'

मैं सिद्धार्थ उस साल से लिख रहा हूँ जिस साल (2011) भारत ने वर्ल्डकप जीता था। इस ब्लॉगिंग के दौर में कुछ नामी समाचार पत्रों के लिए भी लिखा तो कुछ नए नवेले उत्साही डिजिटल मीडिया हाउसेज के लिए भी। हर हफ्ते नियम से फिल्म भी देखी और महीने में दो किताबें भी पढ़ी ताकि समीक्षाओं की सर्विस में कोई कमी न आए।बात रहने की करूँ तो घर और दफ्तर दोनों उस दिल्ली में है जहाँ मेरे कदम अब बहुत कम ही पड़ते हैं। हालांकि पत्राचार के लिए वही पता सबसे मुफ़ीद है जो इस website के contact us में दिया गया है।

1 Comment

  1. vasim mansuri
    November 19, 2022 @ 1:52 AM

    tarif apne itani kar di to film dekhna banta hai..

    Reply

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