रज़िया बी की मौत Piyush के जीवन की अविश्वसनीय और दर्दनाक घटना है। अब वह अपने दिल की धड़कनों में इस घटना का सच निष्प्राण कर देना चाहता है और चल पड़ता है अपनी रज़िया बी को ढूँढने।
शायद हासिल कर लेना, हमेशा के लिए मिल जाना नहीं होता… यह हर बार खो देने से ठीक एक पल पहले आता है।
हासिल करने में छूट जाने की रिक्तता हर पल आवाज़ें देती है और मिल जाने पर दूर कहीं जुदा हो जाने के डर की प्रतिध्वनि बजती है। फिर कुंडलिनी के अनाहत चक्र के बीच एक खनक सुनाई देती है… खुशी, उम्मीद और वांछा की ऊहापोह से भरी खनक…
यह खनक अक्सर मुझे कुछ गानों में सुनाई देती है। जिन्हे सुनते वक्त उस संगीत से उभरे हुए “रोंगटे” सारा महसूस किया लिख देने की जिद्द करते हैं। फिर कलम उठाते ही अंदर से आता हुआ सब कुछ शरीर के ऊपर से हवा में घुलता हुआ दिखता है… लेकिन सब लिख देने की चाह में एक अजीब सी ‘शांति’ है जो सारा भूला हुआ याद करने की जद्दोजहद में ना लिख पाने की तड़प देख लेती है। फिर यह ध्वनिहीनता एक–एक करके कई सपने दिखाती है। और धीरे–धीरे सारा घुला हुआ टुकड़ों में वापस आने लगता है। यह टुकड़े लौटते हुए, अपने साथ लाते हैं कुछ “गाने” जिनके मिलन और जुदाई के लम्हों का सच, इस दुनिया से परे किसी अनंत दुनिया में ले जाकर वहाँ बह रही हवा के दिशाहीन होने से मेल करवाता है जो खौफ़नाक समय में जीवन का असल मायना लगते हैं…
जैसे ‘क़ैस’ के लिए ‘लैला’ उसके पाप और पुण्य दोनों में शामिल है, वह ज़मीन, आसमान, रब सबसे उसे माँगता है और न मिलने पर क़ैस, लैला को अपने बचपन के कुर्ते की जेब में रखी हुई अठन्नी में ढूंढ लेता है…
( फिल्म लैला मजनू के गाने से प्रेरित…)
जैसे ‘जावेद’ और ‘हुस्ना’ साथ बैठ कर हीर और रांझे के नग्में सुना करते थे, होलिका की लकड़ी में संग संग आग लगाते थे, और लोहड़ी की आग की आँच में साथ होकर देर तक एक दूसरे की धड़कनों का सुलगना देखते थे…
अब बटवारे के बाद ‘हुस्ना’ का ‘जावेद’ हिन्दुस्तान में है और ‘जावेद’ की ‘हुस्ना’ पाकिस्तान में, दोनों के बीच कुछ छूट रहा है… जावेद, हुस्ना को अपने सवालों में पुकारता है और दूर कहीं धुँध में लिपटा एक जनाना शरीर अकेले बैठा किसी प्रेमी जोड़े से हीर और रांझे के किस्से सुनते हुए दिखता है…
हॉं वह जावेद की हुस्ना ही है… यह किस्से जावेद के बिना अधूरे हैं लेकिन हुस्ना ने अब “जीवन” चुना है, अब वह उदास करने वाले अकेले अंधेरों से दूर रहा करती है…
जावेद का अन्तस अब भी ‘जुदाई’ के संताप में फँसा हुआ है… और ऐसे ही किसी निढाल दिन ख़्वाब में वह हुस्ना के साथ पूरे पाकिस्तान को उनकी जुदाई में रोते हुए देखता है, इस उम्मीद के साथ कि हुस्ना भी ठीक वैसे ही हिन्दुस्तान को रोते हुए देख रही होगी…
इधर हुस्ना अब अपने संताप से आगे बढ़ चुकी है। अब वह लोहड़ी की आग की आँच में धड़कन सुलगाती हुई प्रेम कहानियों में
जावेद को ढूँढ लेती है…
(Piyush Mishra जी के गाने ‘हुस्ना’ से प्रेरित…)
जैसे सदियों पहले किसी Piyush नाम के बच्चे ने रज़िया बी को दिल की गहराइयों से टूट कर चाहा था, रज़िया बी उसकी जान थीं, उसका पहला अरमान थीं, उसकी संपूर्णता की प्रमाण थीं। लेकिन अपनी अल्हड़ता में वह, प्रेम मुकम्मल करना बीच में छोड़, कहीं दूर चला गया था। इन दूरियों के उस पार से रज़िया बी अक्सर आवाज़ें लगाया करती थीं। इन लगातार उठती आवाजों ने बहुत सालों बाद उसे दोबारा रज़िया बी के कोठे पर लाकर खड़ा कर दिया है। पर रज़िया बी अब वहाँ नहीं हैं। उनकी यादें इन दीवारों पर आज भी दमकती हैं। गर धीरे से जाकर कान लगा, सुनने की कोशिश कीजे तो रज़िया बी की साँसे और धड़कन उन्हीं दीवारों पर थिरकती मिलती हैं।
रज़िया बी की मौत Piyush के जीवन की अविश्वसनीय और दर्दनाक घटना है। अब वह अपने दिल की धड़कनों में इस घटना का सच निष्प्राण कर देना चाहता है और चल पड़ता है अपनी रज़िया बी को ढूँढने। ढूँढते हुए वह बहुत दूर कोहसारों में कहीं निकल जाता है। रज़िया बी कहीं नहीं हैं लेकिन उनकी कब्र अब दिखने लगी है। पीयूष बदहवासी में उनके साथ जिए लम्हों से एक फैसला करता है कि वह अपना सारा जीवन रज़िया बी की कब्र के बगल में बिता देगा। और इस फैसले में ही उसके पूरे जीवन का हासिल है। फैसले की संपूर्णता में पियूष अब रज़िया बी की कब्र के बिल्कुल बगल में लेट कर उनसे वह सारी बातें कर रहा है जो उनके साथ जीते हुए करनी चाहीं थी, कभी।
इन बातों में एक सपना भी था। किसी उजले शहर में घर बनाने का सपना। इस सपने में उनके प्रेम का गला घोंट देने वाला समाज रूपी कोई “बाज़” नहीं था। आँखे बंद किए हुए ही दोनों को पूरा शहर घूम आया करते। यह दुनिया उनकी वास्तविक दुनिया से बिल्कुल अलग दिखती थी। इस दुनिया में रहने से बड़ा उनके लिए अन्य कोई सुख नहीं था।
लेकिन यहाँ जीवित रहना वह अपनी मौत के बाद देख रहे थे। शरीर से छूट कर जाती हुई अपनी रूहों से बस थोड़ी देर और रुक जाने के आग्रह कर रहे थे। उस ज़रा सा रुक जाने में दोनों जहाँ का सुख था और वह देख रहे थे बगीचे में नंगे पाँव हाथों में हाथ डाले पत्तों की चर–पर पे अपना चलना , फूलों की वादियों का स्वयं उनके लिए अपने द्वारों का खोलना। कोयल, मैना, बतख, बगुले सबका सखा भाव लिए केवल उनके अटूट प्रेम को निहारना।
पर अब बहुत देर हो चली थी। उनकी मिन्नतों पर बहुत देर से रुकी हुई दोनों की रूहें उन्हें उनके नहीं होने का प्रमाण देने लगी थीं। अब रुहलोक उन्हें बुला रहा था और दोनों ने एक दूसरे को साथ “मुक्त” होने में पा लिया था।
(Piyush Mishra जी की कविता “तुम मेरी जान हो रज़िया बी” और गाने “घर” से प्रेरित)
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