Kashmir को जन्नत क्यों कहते हैं ये समझना बहुत ज़रूरी है। क्यों ऋषि कश्यप हिमालय चढ़े और इस स्वर्ग का नाम कश्मीर पड़ा, ये जानना बहुत ज़रूरी है।
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कहानी रेडियो पर बजती क्रिकेट कॉमेंट्री से शुरु होती है। इंडिया-पाकिस्तान का मैच बज रहा है और कश्मीर के बर्फ से ढके मैदान में पिच जितना गड्ढा बनाकर, दो बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। उनमें से एक बच्चे ‘शिव’ के मुँह से सचिन का नाम नारे की तरह निकलने लगता है तो आसपास खड़े लोग उसे काफिर कहकर मारने लगते हैं।

फिर वो 19 जनवरी 1990 का भयानक दिन आता है जब सड़कों पर आम लोगों को मारा जाता है। सवाल पूछते ही गोली दाग दी जाती है। घरों में घुसकर लूटपाट होती है और घर से खदेड़कर कश्मीरियों को उन्हीं के घर से भगाने लगते हैं। यहीं एक टीचर पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) रहते हैं जो सालों से शिवरात्रि पर खुद शिव बनकर प्ले करते आ रहे हैं। इनका बेटा करन पंडित इटेलएचुअल आदमी है, आंशिक रूप से नेता बताया गया है। आतंकी फ़ारूक मलिक बिट्टा (चिन्मय मंडलेकर) इसके बीवी बच्चों के सामने इसे गोलियों से भून देता है और पत्नी शारदा (भाषा सुम्बली) अपने बच्चों को बचाने की खातिर पति का खून अपने मुँह से लगा लेती है।
ये इतना दर्दनाक सीन है कि लगता है इससे बुरा और क्या हो सकता है? पर ऐसा नहीं है! इस फिल्म के दिखाए दृश्यों में क्रूरता की कोई सीमा ही नहीं है।
एक कश्मीर आपने विशाल भारद्वाज द्वारा देखा था, फिर एक-दो बार आपने विधु-विनोद चोपड़ा की नज़र से भी देखा! उन दोनों कश्मीरों में कविताएं थीं, नाच-गाना था! मगर इन फाइल्स में चीखें हैं, दर्द है, तड़प है और मदद की गुहारे हैं।
विवेक अग्निहोत्री का अच्छा रिसर्च वर्क साफ पता चलता है। राइटिंग बहुत जानदार है। direction कुछ एक जगह पर भारी होने लगता है, स्मूद न होकर फोर्सफुल लगता है पर ऐसे क्षण कम ही हैं (दर्शन कुमार और मिथुन की वार्ता खासकर)
डाइलॉग एक से बढ़कर एक हैं –
“आतंकी को सरेंडर करने के लिए 2 लाख मिलते हैं और कश्मीरी शरणार्थियों को 600 रुपए महीना”।
“सच जबतक चप्पल पहनता है, झूठ पूरी दुनिया के चक्कर लगा आता है”
अनुपम खेर एक्टिंग कर रहे थे या रेयलिटी जी रहे थे; लिखना मुश्किल है। ये उनका अब तक का बेस्ट परफॉरमेंस है।
दर्शन कुमार कुछ जगह या तो बहुत ज़बरदस्त नज़र आए हैं या साफ ओवर एक्टिंग करते दिखते हैं। धाराप्रवाह की कमी साफ पता चलती है। पर उनकी अंतिम स्पीच शानदार है।
मिथुन, पुनीत इस्सर, प्रकाश बेलावड़ी और अतुल श्रीवास्तव के हिस्से में ज्यादा कुछ था नहीं, पर जितना था, इन मंझे हुए कलाकारों ने ज़बरदस्त निभाया है। इन दोस्तों के बहाने विवेक ने भारत के चार स्तम्भ दिखाए हैं। यह चारों क्रमशः अधिकारी, पुलिस फोर्स, डॉक्टर और दूरदर्शन मीडिया का रोल निभा रहे हैं और त्रासदी के वक़्त चारों गूंगे हैं।
चिन्मय मंडलेकर इतने ज़बरदस्त रोल में हैं कि उनसे नफरत हो जाये। यही हाल पल्लवी जोशी का भी है। वह जेएनयू की प्रोफेसर बनी हैं जो बच्चों से नारे लगवाती हैं। उनके ब्रेन वॉश करती हैं।
पृथ्वीराज सरनाइक, छोटे से शिवा के रोल में इतने प्यारे लगे हैं कि पूछिए मत।
अंत में भाषा सुम्बली की जितनी तारीफ करूँ कम ही होगी। यह कश्मीर की थिएटर आर्टिस्ट हैं। शारदा पंडित के कैरेक्टर के साथ इन्होंने न्याय किया है।
रोहित शर्मा का बैकग्राउन्ड म्यूजिक डिप्रेसिंग है, घड़ी घड़ी रुला देता है। फ़ैज़ का ‘हम देखेंगे’ गाना बहुत अच्छा कॉम्पोज़ हुआ है।
उदय सिंह मोहिते की Cinematography थोड़ी कॉनफ्यूज़िंग है। कुछ जगह कैमरा एंगल यूँ मूव किया है कि इक्स्प्रेशन का इम्पैक्ट ही खत्म हो गया है। हालांकि वॉइलेंट सीन बहुत इम्पैक्टफुल शूट हुए हैं।
शंख राजाध्यक्ष ज़रा बहुत एडिटिंग और करते तो 2 घंटे 45 मिनट्स की फिल्म, ढाई से कम की हो सकती थी।
कुलमिलाकर फिल्म बहुत से अनछुए किस्सों को बहुत निर्दयी अंदाज़ में, बिना कोई पर्दा किये छूती है।
Kashmir files देखने की वजह –
अगर जानने के इच्छुक हों कि कश्मीरी पंडितों को किस तरह प्रताड़ित होकर कश्मीर से निकलना पड़ा था, कैसे दिल्ली की राजनीति गूंगी बनी बैठी थी।
न देखने का बहाना –
वॉइलेन्स से घबराहट होती हो, टेक्स्ट बुक हिस्ट्री के आगे कुछ देखने का मन हो या आँखों में आँसू बचे न हों।
The Kashmir Files रेटिंग – 8/10*
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