ब्रह्मा जी जब आँख मूँदे इस पृथ्वी पर जीवों का निर्माण कर रहे थे, तब शिव (Shiva) जी की एक नज़र उनपर ही थी। ब्रह्मा जी जिस-जिस दिशा में जीवन आरंभ कर रहे थे, उस-उस दिशा में उनका एक सिर प्रकट हो रहा था। शिव (Shiva) ने देखा कि ब्रह्मा जी के द्वारा उत्पन्न हुए जीव जन्तु आदि अपना जीवन अच्छे से बिता रहे हैं लेकिन मनुष्य अपना मुख्य समय एक दूसरे से लड़ने, एक दूसरे के प्रति ईर्षा, द्वेष, मनमुटाव रखने में गंवा रहे थे।
इस निर्माणकार्यकाल में जब ब्रह्मा जी का एक मुख आकाश की ओर भी उठ गया, यानी उनके चार नहीं पाँच मुख हो गए, तब Shiva से रहा न गया और उन्होंने इसे ब्रह्माजी का घमंड समझा और….
क्रोध में आकर जब Shiva ने त्रिशूल से उनका पाँचवा सिर काट दिया
यह देख, ब्रह्मा ने हाथ जोड़ इस हिंसा का कारण पूछा। तब शिव ने बताया कि ब्रम्हा से उत्पन्न हुए सारे जीव इतने सुगम सरल और प्राकृतिक हैं लेकिन ये मनुष्य क्यों एक दूसरे व अन्य जीवों के प्रति इतना झगड़ा इतना द्वेष इतनी ईर्षा पाले हैं? जब उन्होंने बाकी जीवों में यह मनमुटाव नहीं डाला तो मनुष्य में ईर्षा और द्वेष भावना क्यों डाली? क्यों उन्हें ऐसा बनाया कि वो आपस में हमेशा लड़ते रहें? फिर बनाया तो बनाया, अपनी इस भूल का घमंड भी करने लगे और आकाश की ओर सिर उठाया लिया!
इसके जवाब में, ब्रह्मा जी ने जब हाथ जोड़कर बताया कि ‘हे देवों के देव! मैंने किसी भी जीव जन्तु पुरुष को लड़ने झगड़ने के लिए नहीं बनाया। मैंने उन्हें बिल्कुल कोरा, कैलाश के हिम समान स्वच्छ, निर्मल बनाया है। हाँ, बाकी जीवों की बुद्धि सीमित है, उनकी शारीरिक क्षमता भी सीमित है, वह अपने प्रारब्ध से बंधे हैं परन्तु मनुष्य को मैंने हर बंधन से मुक्त रखा है। मनुष्य की बुद्धि इस तरह की है कि ये स्वयं निर्माण कर सकती है। हर मनुष्य में मेरा अंश है, मनुष्य स्वयं ब्रम्हा है।
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परंतु असीमित निर्माण की संभवता को किनारे कर, मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग एक दूसरे से लड़ने और खाने में कर रहे हैं। ये उनका चुनाव है। मैंने उन्हें बंधनमुक्त बनाया है, उनका मस्तिष्क बंधनमुक्त है, यह मनुष्य है जो खुद को वस्तुओं और व्यक्तियों से बांध रहा है और उसी के मोह में, या अधिक की चाह में, लड़ रहा है।
यह सुन, शिव ने मनुष्य रूप लिया और बैठ गए पद्मासन लगाकर। उन्होंने सृष्टि टटोलने की बजाए अपने मन को, अपनी बुद्धि को टटोलना शुरु किया और थोड़े ही प्रयास से उन्होंने जाना कि ब्रह्मा की बात बिल्कुल सही है। मनुष्य बुद्धि असीमित है। उन्हे एक अद्भुत हर्षोन्माद का एहसास हुआ। वो आनंद से झूम उठे।
परंतु कुछ ही पलों के नृत्य के बाद उन्हें यह भी महसूस हुआ कि इस नृत्य की भी आवश्यकता नहीं, यह शरीर, यह बुद्धि और यह जीवन ज्योति ही अपने आप में नृत्य है। आनंद ही आनंद है। इसी वक़्त शिव बिल्कुल ठहर गए। उनका मुख ऊपर हो उठ गया और उनकी आँखों से आनंदित अश्रु बहने लगे।
माता के दरबार में आरती
मैं मात्र दो बार वैष्णों देवी मंदिर गया हूँ। जब पहली बार गया था तब शाम की आरती के वक़्त दरबार पहुँचा था। मेरे साथ बहुत भीड़ थी जो दरवाजे के पास ही खड़ी थी। उन्हीं में एक महिला थीं जो आरती बुदबुदाते हुए आँख मूँदे थीं। मैं 12 साल का था, मैंने देखा कि उनकी आँखों से झर-झर-झर-झर आँसू बह रहे हैं, पर वह रो नहीं रही थीं। मैं अजीब सी घबराहट महसूस करने लगा।
फिर गौर किया तो लगभग हर दूसरा श्रद्धालु ऐसे ही नम आँखें लिए, गालों पर लुढ़कते आंसुओं के साथ हाथ जोड़े खड़ा था। मेरे लिए ये बिल्कुल अलग इक्स्पीरीअन्स था।
कल टीशा अग्रवाल की पोस्ट पढ़ी तो याद आया कि बीते साल से ईशा फाउंडेशन कोयम्बटूर की तस्वीरें देख रहा था। फिर धीरे-धीरे यहाँ जाने का मन होने लगा। नॉर्थ से साउथ जाना अमूमन खड़े पैर नहीं हो पाता, इसलिए जाना टलता रहा। बीते महीने मैंने सपने में देखा कि मेरे सामने आदियोगी की 112 फिट ऊँची मूर्ति है, मैं हाथ जोड़े उनकी तरफ जा रहा हूँ और मेरे होंठों पर मुस्कुराहट है और आँखें झरने की तरह बह रही हैं। tears of ecstasy. हर्षोउन्माद के आँसू। जब मेरी नींद खुली तो देखा मेरी आँखें वाकई भीगी हुई थीं, तकिया तक गीला था।
मुझे महसूस हुआ कि जब हमारे हर्ष की, हमारे आनंद की सीमा हमारी बनाई हुई मानसिक बाउंडरी को तोड़कर हमारे मन में मौजूद शिव को छू लेती है, तब यह आँसू बिना मर्ज़ी के निकल पड़ते हैं।
महसूस ये भी हुआ कि हर नर में ही नारायण, बुद्धि में ही ब्रह्मा और साँस-साँस में शिव (shiva) मौजूद हैं!
और हाँ, शिव के अश्रु जब धरती पर गिरे थे तब एक पेड़ निकला था। वो रुद्र के आँसू ही थे, जिसे हमने रुद्राक्ष नाम दिया है!