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हम जिस उम्र (Bachpan) में जो भी चीज़ खुद के आसपास कम देखते हैं, उसे अपना अल्टिमेट लाइफ गोल और उसी को सबसे इम्पॉर्टन्ट चीज़ मान लेते हैं। जब मैं स्कूल में था तो चॉकलेट्स दुनिया की सबसे इम्पॉर्टन्ट, सबसे कीमती चीज़ लगती थीं। फिर टीन एज में आया तो अल्टिमेट गोल गरल-सखियाँ लगने लगीं। फिर कुछ ही समय में अल्टिमेट गोल पैसा, अत्यधिक पैसा, बहुत पैसा, इतना पैसा कि जो चाहें खरीद लें; हवाई जहाज खरीद लें, लगने लगा।

कई सालों तक इसी बेवकूफी भरी आइटम में जीवन इन्वेस्ट किया पर बीते दो ढाई सालों से, पैसा बहुत हल्की चीज़ लगने लगी। ऐसा नहीं कि इसकी इम्पॉर्टन्स नहीं है, पर धीरे-धीरे मन सुखी परिवार और शांत-मन चित्त को ज़्यादा तरजीह देने लगा। यहाँ मैं ये भी बताना चाहूँगा कि पैसा कमाना जब आ जाए, आ जाए से मेरा मतलब है कि आपको ये सहूर समझ आ जाए कि ये पल पल घटने वाली चीज़ पैसा, आगे बढ़ाई कैसे जा सकती है।

इसका flow कैसे बनाए रखा जा सकता है; तब आपके अंदर थोड़ी भी इंसानियत बाकी है, आप पूरी तरह robotic नहीं हुए हैं तो आपको कमाते-कमाते उन लोगों का साथ देने में भी आनंद आने लगता है, जिनके पास एक फूटी कौड़ी नहीं है। आपको एक अलग ही खुशी मिलती है तब जब आप माँगने की बजाए देने वाले role में आ जाते हैं।

bachpan

फिर भी पैसा कमाना हो या बांटना, इसकी हाए-हाए दोनों ही sense में तबतक खत्म नहीं होती जबतक इससे बेहतर, इससे बड़ा कुछ नज़र नहीं आने लगता है।

यूँ तो पहाड़ों में अक्सर आना जाना होता रहा है मेरा, पहाड़; खासकर मसूरी तो मेरे लिए दूसरे घर जैसा है! आधा दर्जन चक्कर मैं मसूरी के ही लगा चुका हूँ। गलियों से वाकिफ हो चुका हूँ मसूरी की, लेकिन हिमाचल जाना मेरे लिए एक अलग experience बनकर आता है। इस बार (जनवरी 2022) की visit मिलाकर मैं अबतक चार बार हिमाचल जा चुका हूँ, जिसमें से तीन बार मनाली जाना हुआ है, दो बार हमटा पास जा चुका हूँ और एक एक बार सोलंग वैली और एक बार कसोली जा चुका हूँ।

ये पहला मौका था जब मैं खखनाल रुका था। मुझे ले जाने वाले, विजय मोदी उर्फ फाइनैन्सर जितने परेशान थे कि शहर से कितना दूर होटेल है, मैं उतना ही खुश, मौज में था कि शहर से ज़रा दूर होटेल है।

बहरहाल, बात तो बचपन से लेकर अबतक की ख्वाहिशों की हो रही थी।

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जब मैं खखनाल के एक अनजाने झरने के पास बैठा मुकेश जी से बात कर रहा था, तब जाने क्यों एहसास हुआ कि शांत-मन और सुखी परिवार इतनी बड़ी अड़चन है नहीं जितनी हम अर्बन सोसाइटीज़ ने बना दी है। यह कोई अल्टिमेट गोल नहीं है, यह डेली रूटीन की आइटम है। यहाँ बैठे, ज़िंदगी की सारी एक्सट्रीम प्रीऑरिटीज़ जैसे घुल सी रही थीं। मन झरते पानी के साथ ताल से ताल मिलाकर बहने लगा था! यूँ एहसास हो रहा था कि ये मन है, जो अगर शांत हो, बैलन्स हो तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हम बर्फ के पहाड़ पर हैं या आनंदविहार के ट्रैफिक में, झरने किनारे हैं या राजौरी गार्डन फ्लाईओवर पर!

ऐसा शून्य होता मन मुझे पहली बार, बिल्कुल पहली बार महसूस हुआ था। जब we met में जब आदित्य वापस अपने office पहुँचता है तब उसका दोस्त मज़ाक में कहता है न कि तू मनाली गया था? वहाँ जय बाबा भोले नाथ किया था न?

बस कुछ वैसा ही transformation मुझे भी महसूस हुआ।

कोई फ़र्क नहीं पड़ता! चेहरे पर यूँ तो कई रेखायें हर वक़्त रहती हैं, पर जब हमारा मन शांत और चित जाग्रत होता है न, तब चेहरे पर कोई लकीर नहीं, बुद्धमई छाप नज़र आने लगती है, इस ज़रा से आत्मचिंतन से, कुछ देर के लिए ही सही; हर सिद्धार्थ बुद्ध नज़र आने लगता है।

– सिद्धार्थ अरोड़ासहर


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