बातें कम scam ज़्यादा एक ऐसी किताब है जिसको पूरा पढ़ने में मैंने दो महीने लगा दिए।
बातें कम काम ज़्यादा के नारे को, व्यंग्यात्मक तरीके से ट्विस्ट करने पर नीरज बधवार की किताब बातें कम scam ज़्यादा बनती है।
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इस scam कथा में नीरज जी 40 व्यंग्य कथाएं लिखी हैं।
शुरुआत “जब मैं बना cheap guest” से है तो अंत ‘हमदर्दी का सर्टिफिकेट’ पर हुआ है। शुरुआत में व्यंग्य कम और जोक ज़्यादा हैं। पर एक बात जो यूनीक लगी वो ये कि अमूमन संग्रह की पहली कहानी पर ही लेखक अपनी किताब का शीर्षक रख देते हैं, पर यहाँ तो बातें कम scam ज़्यादा सेंटर फॉरवर्ड में कहीं मिलती है।
पहली ही रचना में लेखक खुद पर व्यंग्य वार कर, कुछ सिचूऐशनल कॉमेडी डाल पाठक को हँसाने में कामयाब होता है। आगे ‘घूमने फिरने का टारगेट, लौहराष्ट्र, बुफ़े में ज़्यादा कैसे खाएं’ आदि आगे बढ़ते व्यंग्य ताबड़तोड़ हँसाते हैं पर साथ ही साथ थोड़ा सा टोंट, थोड़ा सा कटाक्ष भी मारते हैं।
वरुण ग्रोवर ने एक बार मंच पर कहा था कि एक अच्छा सार्कैज़म वो होता है जिसपर हॉल में बैठा हर शख्स हँसे। पर एक बेहतर सार्कैज़म वो होता है जिसपर हॉल में बैठे आधे लोग हँसे और बाकि आधे सोचने पर मजबूर हों कि मज़ाक में लपेटकर ये बात तो बिल्कुल सटीक मारी गई है।
कुछ ऐसा ही बातें कम scam ज़्यादा की आगे बढ़ती व्यंग्य रचनाओं को पढ़कर महसूस होता है। ‘एक तुम्हारा रिजल्ट एक मेरा’, ‘दूसरे की बीवी और दूसरे का मोबाईल’, ‘यहाँ पेशाब करना मना है’ जैसे व्यंग्य हँसाते कम, झकझोरते ज़्यादा हैं।
इन चालीस के चालीस का ज़िक्र करना तो संभव नहीं, न ही इनमें से कोई एक चुनकर अपना पसंदीदा बताना आसान काम है, पर जैसे चावल पके हैं कि नहीं, ये जाँचने के लिए कोई एक चावल ही निकालकर पिचकाया जाता है, वैसे ही मेरी पसंद का, वो तीखी मार वाला चावल – ‘अगर आज रावण ज़िंदा होता’ है।
मुलाहजा फरमाइए –
अगर आज रावण ज़िंदा होता तो न पूरे मुँह की सेल्फ़ी ले पाता और न ही दस सिरों के साथ फोटो खिंचवा आधार कार्ड बनवा पाता। बाइक से ज़्यादा खर्च तो उसको हेलमेट खरीदने में आता।
हर महीने 10 सिरों की कटिंग कराने के लिए उसे एफडी तुड़वानी पड़ती।
फिल्म देखने के लिए पूरी की पूरी ‘रो’ बुक करनी पड़ती। पॉपकॉर्न भी 10-10 बकेट लेने पड़ते।
(यहाँ तक मज़ाक हो रहा है, अब आगे पढ़िए)
अगर आज रावण ज़िंदा होता, तो क्या उसे इतनी आसानी से मार दिया जाता?
रावण माँ सीता का अपहरण कर उन्हें अपने साथ ले जाता। स्थानीय पुलिस थाने में इसकी शिकायत जाती। यह जानने के बाद कि रावण जिस जाति का है, वह तो राज्य सरकार का बड़ा वोटबैंक है, पुलिस एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर देती। बल्कि उनसे यह साबित करने को कहा जाता कि क्या वाकई अपहरण हुआ है या दोनों सहमति से भागे हैं?
हनुमान पर दबाव बढ़ाने के लिए पुलिस उनके कुछ बंदरों को केला चुराने, फ्रूटी छीनने के जुर्म में गिरफ्तार कर लेती।
लक्ष्मण को इनोवा भेज राम का साथ छोड़ने के लिए बरगलाया जाता। उन्हें राज्यसभा की सीट का लालच देकर और ‘बाल हनुमान’ की तर्ज पर ‘भला लक्ष्मण’ के नाम से 52 एपिसोड का प्रोग्राम शुरु करने का आश्वासन दिया जाता।
ट्विटर पर ‘भगौड़ा रावण, जालिम सरकार’ ट्रेंड करने लगता। फेसबुक ‘मिसिंग-सीता’ के नाम से पेज बनाकर लोगों से…..!
(कॉपीराइट उलँघन और स्पॉइलर न देने के चलते पूरा व्यंग्य नहीं लिख रहा हूँ)
इस इकलौते व्यंग्य में, हास्य तो है ही, साथ-साथ लोकतंत्र के चारों स्तंभों पर भर-भर के कटाक्ष है। जहाँ तक मैंने लिखा है, उसके ठीक बाद वाले पैराग्राफ़ में मिलॉर्ड भी घेरे जाते हैं।
भाषाशैली की बात करूँ तो नीरज जी ने आम बोलचाल वाली हिन्दी-अंग्रेज़ी मिक्स भाषा रखी है और उनके लिखने तरीका, आम सी बात को भी व्यंग्यात्मक बना देने वाला है। शायद इसलिए कुछ एक जगह वो फोर्सफुली हँसी लाने की कोशिश करते हैं तो वहाँ ज़रा ओवर होता लगता है।
जो व्यंग्य रचनाएं फर्स्ट पर्सन, प्रथम पुरुष यानि ‘मैं’ से शुरु होती हैं वो ज़्यादा गुदगुदी करती हैं।
अंत में, हमदर्दी का सर्टिफिकेट व्यंग्य कम और दर्शन, फिलासफी ज़्यादा नज़र आता है पर ये भी मारक है। बैकफायर नहीं करता।
कुलमिलाकर 143 पन्नों में सिमटी, 250 रुपये एमआरपी वाली ‘बातें कम scam ज़्यादा’ खून बढ़ाने का बढ़िया टॉनिक बन सकती है। बाशर्ते पढ़ने वाले के पास ज़रा बहुत सेंस ऑफ ह्यूमर हो, थोड़ी सी पॉलिटिकल जानकारी हो और एक बार में पूरी बोतल गटक लेने की बेसब्री न हो।
Kaaldand (कालदण्ड) by लोकेश शर्मा – review
जी हाँ, आप इन 40 scam रचनाओं को अगर एक साथ उपन्यास की तरह पढ़ने बैठ जाएंगे तो ये अलग तरह से असर करेगी पर अच्छी स्कॉच समझ, तुबका तुबका, रोज़ दो एक व्यंग्य पढ़ेंगे तो इन्हीं 40 रचनाओं को 40-40 बार पढ़ने पर भी वही आनंद आयेगा जो पहली बार पढ़ने पर आया था।
(अगर आप नीचे दिए लिंक से किताब ऑर्डर करते हैं तो आपको 145 रुपये में मिल सकती है)
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