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थ्रिलर वेबसीरीज़ दहाड़ (Dahaad) ऐमज़ान प्राइम की बीते दिनों की स्ट्रीम है। हर नई वेबसीरीज़ पिछली के मुकाबले, कुछ नया, कुछ यूनीक लाने की कोशिश कर रही है और इस कोशिश में दहाड़ (Dahaad) भी कामयाब होती है।

 

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दहाड़ (Dahaad) की कहानी राजस्थान के मंडावा गाँव की है जहाँ ठाकुरों की बेटी एक सीधे-साधे मुस्लिम लड़के के साथ अपनी मर्ज़ी से भाग जाती है पर क्योंकि ठाकुरों की पहुँच ऊपर तक है, उनका बेटा विधायक है; इसलिए लड़के को पुलिस दबोच लेती है और लड़की को घरवाले घर में बंद कर देते हैं।

अब एक अभागा भाई और है जो अपनी बहन की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाकर थाने के चक्कर तो काट रहा है, पर क्योंकि बहन नोट लिखकर गई है और वो पिछड़ी जाति का है, इसलिए हवलदार से लेकर इन्स्पेक्टर तक उसे ‘बालिग लड़की अपनी मर्ज़ी से गई है’ का केस मानकर इग्नोर कर देते हैं।

अब यही भाई, लव-जिहाद ऐंगल का इस्तेमाल कर अपनी बहन का केस भी खुलवा लेता है और इस भागदौड़ में पता चलता है कि उसकी बहन तो दो महीने पहले ही एक सुलभ शौचालय में सायनाइड खाकर मर गई थी।

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यहाँ से कॉल-रिकॉर्डिंग और सीसीटीवी फुटेज का ऐसा नंगानाच होता है कि एक-एक कर 29 लड़कियाँ इसी तरह शादी के जोड़े में, सुलभ शौचालय में साइनाइड खाई लावारिस लाश बनी मिलती हैं और इन्स्पेक्टर   सब-इन्स्पेक्टर अंजली भाटी समेत देवीलाल सिंह हर दौड़ धूप कर कातिल का पता भी लगा लेते हैं।

पर यहाँ ट्विस्ट है, कातिल साफ बच निकलता है और अंजली भाटी मनमसोसकर रह जाती है। यहीं तक सीरीज़ में रफ्तार, लॉजिक, सटायर, सार्कैज़म, भली राइटिंग आदि सब है। लेकिन इसके बाद गाड़ी ऐसी पटरी से उतरती है कि आँखें बोझिल होने लगती हैं।

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एक्टिंग की बात करें तो सोनाक्षी ने अपनी लिमिट से बढ़कर काम किया है। कहीं कहीं सोनाक्षी वाकई दहाड़ी हैं। वो सब-इन्स्पेक्टर लेडी दबंग के रोल में जमी हैं। हालाँकि गुलशन देवैया इन्स्पेक्टर की बजाए हेड कॉन्स्टेबल ज़्यादा लगे हैं। कुछ डायरेक्टर की मेहरबानी कुछ आर्टिस्ट की कमी, गुलशन बहुत मशक्कत के बाद भी अपने रोल को जस्टीफ़ाई नहीं कर सके हैं।

हाँ, amazon प्राइम का कोई भी पुलिस वाला अपनी पत्नी को खुश न रख सका है, (पाताललोक का हाथीराम, फैमिली मैन का श्रीकांत, फ़र्ज़ी का माइकल) तो भला इन्स्पेक्टर देवीलाल (गुलशन देवैया) कैसे रखते। देवीलाल भी अपनी पत्नी से नोक-झोंक करता रहता है। अपनी बेटी को मजबूत बनाना चाहता है, वो चाहता है कि उसकी बेटी जहाँ चाहे अपनी मर्ज़ी से जाए, इस मामले में वो अपनी पत्नी की भी नहीं सुनता।

हालाँकि वो पूरे दिन में बस 5 मिनट के लिए बच्चों से मिलता है, पर फिर भी लड़के के पॉर्न देखते पकड़े जाने पर उसको प्रामिस कर देता है कि बेटा कोई भी बात हो तो मुझसे पूछो, बाहर मत भटको और लड़की को दिल्ली काम्पिटिशन के लिए जाना है तो लाओ मैं साइन करता हूँ, भले मम्मी कितनी चीखती चिल्लाती रहें।

इन्स्पेक्टर देवीलाल को अपनी बीवी संग संभोग करते समय भी अंजली भाटी का चेहरा नज़र आता है।  अहम, आगे बढ़ते हैं…

सोहम शाह का इकलौता कैरेक्टर है जिसमें आर्क है। यानि वो पहले कुछ से फिर कुछ बेहतर होता नज़र आता है। कैलाश परघी के रोल में सोहम शाह को एक ऐसा पति दिखाया है जो बच्चा नहीं करना चाहता, उसे डर लगता है कि इस कलयुग में बच्चे के साथ न जाने क्या अनहोनी हो जायेगी। इस चक्कर में (एक और ऐमज़ान का पुलिस वाला) वो अपनी प्रेग्नेंट बीवी से झगड़ लेता है, बीवी मायके चली जाती है।

पर सोहम शाह की एक्टिंग लाजवाब है, उनका कैरेक्टर को ब्लैक से ग्रे, फिर ग्रे से ऑफ व्हाइट में लाना अच्छा लगता है।

अब बात विजय वर्मा की। गली बॉय, darlings, मिर्ज़ापुर, शी, जैसी वेबसीरीज़ और फिल्मों से विजय ने भले ही बहुत तारीफ़ें बहुत बटोरी हों, पर दहाड़ (dahaad) उनके एक्टिंग करिअर की माइल-स्टोन सीरीज़ कहलाएगी।

एक ठंडे दिमाग वाले साइको-किलर को जिस खूबसूरती से विजय वर्मा ने पोट्रे किया है, ऐसा कर पाना बड़े-बड़े एक्टर्स के लिए बहुत मुश्किल है।

पर विजय और सोनाक्षी की सारी मेहनत पर जबरन प्रॉपगेंडा राइटिंग मिट्टी डाल देती है।

हालाँकि डाइलॉग्स अच्छे हैं, असरदार हैं जैसे –

“जो खुश होते हैं न, वो खुदकुशी नहीं करते”

“अभी ये लोग नारे लगा रहे हैं, तब इनमें से किसी से इतना न हुआ कि अपनी बेटी के लिए रिपोर्ट लिखा दें”

ऐसे ही अनेकानेक अच्छे संवाद हैं जिनमें पिछड़ी जाति की मेहनत और ठाकुर ब्राह्मण के अत्याचारों का भी जम-जम ज़िक्र है।

पर रीमा कागती जितनी खूबसूरती से सीरीज़ की शुरुआत करती हैं, उतनी बेहतरी से मिडिल और अंत नहीं कर पाती। लड़कियाँ साइनाइड कैसे खा रही हैं, इस खुलासे के बाद सीरीज़ सुस्त हो जाती है और आगे के एपिसोड्स खानापूर्ति लगने लगते हैं।

लव जिहाद के ऐंगल से शुरुआत हुई अच्छी लगती है, पर अंत उतना ही जबरन, उतना ही बेतुका लगने लग जाता है।

कुलमिलाकर रीमा कागती और ज़ोया अख्तर ने एक अच्छी क्राइम-थ्रिलर सीरीज़ बनाई थी जिसमें जात और धर्म का इतना तड़का लग गया कि उसका मूल अस्तित्व खत्म हो गया। हालाँकि जो टॉन्ट महिला हक़ में किए, वो कारगर लगे। शादी को लेकर जो सेनेरिओ दिखाया, लड़की को जिस तरह बोझ बताया, वो शानदार रहा। पर अनगिनत वामपंथी फिल्मों की तरह इसमें भी मुद्दा तो उठाया गया, पर उसके सोल्यूशन की कोई बात न की गई।

इसके इतर, दहाड़ (dahaad) की जो कुछ बातें हद से ज़्यादा बेतुकी लगीं वो यूँ हैं कि –

Dahaad

एक पिछड़ी जाति का बाप अपनी बेटी का भविष्य सुधारने के लिए उसका नाम चेंज करवाकर उसे ऊँची जाति का सरनेम देता है, हालाँकि कोई इस सरनेम की वजह से बेटी को भाव नहीं देता, पर सवाल ये उठता है कि जब जाति के आधार पर आरक्षण है और बाप भी बेटी का मजबूत भविष्य चाहता था तो उसने कास्ट चेंज क्यों करवाई? य

तिसपर आखिर में फिर सरनेम चेंज करवाना और बेतुका लगता है।

बेटी दिन रात की ड्यूटी करके घर लौटी है। माँ पूजा कर रही है, रुकती है, बेटी को दो ताने मारती है, बेटी पूजा-पाठ देखकर मुँह सड़ाती है और माँ उसे मनाने के लिए न पानी पूछती है न खाना, उसे लड़कों की फोटो दिखाने लगती है।

एक ऊँची जात का आदमी सर्च वारेंट होने पर भी सब-इन्स्पेक्टर को अपनी हवेली में घुसने से मना कर देता है क्योंकि वो सरनेम बदलवाने के बाद भी नीची जात की है, अब यहाँ इन्स्पेक्टर कानून की बात नहीं करता, बल्कि वही सब-इन्स्पेक्टर बुरी तरह झाड़ते हुए आर्टिकल 15 के बारे में बताती है और धड़ल्ले से अंदर जाती है।
सवाल ये है कि वो ऊँची जात का आदमी, इस सब-इन्स्पेक्टर का नाम तो जानता था इसलिए मना किया, पर साथ में 15 हवलदार और सिपाही भी थे, क्या वो सबका नेम-प्लेट देखकर डिसाइड करता कि कौन अंदर जाएगा और कौन नहीं?

ये आखिरी आपत्ति, (dahaad, dahaad, dahaaddahaad, dahaad, dahaad) dahaad, dahaad, dahaad

मरियम के घर में घुसने के बाद इन्स्पेक्टर पूरे घर की तलाशी ले रहा है वहीं सब-इन्स्पेक्टर और हवलदार वहीं खड़े हैं। सब-इन्स्पेक्टर तो चलो महिला है, मरियम भी महिला है इसलिए पूछताछ करने के लिए रुक गई, पर इन्स्पेक्टर क्यों भूल गया कि उसे हवलदार का रोल नहीं मिला है।

हालाँकि एसपी को भी निठल्ला लंपट दिखाया गया है, पर ठीक है, अफसरशाहों को कोसना तो हमारा धर्म रहा है।

बादबाकी, मुझे नहीं लगता कि ऐसी फिल्में वेबसीरीज़ बनाने से जात बिरादरी की खाई मिटेगी जिसमें किसी भी एक या दूसरी जाति को जी भर के कोसा जा सके। ये बिल्कुल सच होगा कि गाँव-कस्बों में अभी भी ऊँची जाति के लोग नीची जात वालों का शोषण करते होंगे, पर सीरीज़ में इस तरह उन्हें गालियाँ बककर, उन्हें क्रूर दिखाकर मन की भड़ास तो निकाली जा सकती है, पर उन नीची जाति वालों का भला नहीं किया जा सकता।

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बाकी रिव्यू कैसा लगा ये आप ज़रूर बताएं। अच्छा हो तो शेयर करें। ये भी बताएं कि इस सीरीज़ का नाम दहाड़ (Dahaad) क्यों रखा गया?

सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’  


सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'

मैं सिद्धार्थ उस साल से लिख रहा हूँ जिस साल (2011) भारत ने वर्ल्डकप जीता था। इस ब्लॉगिंग के दौर में कुछ नामी समाचार पत्रों के लिए भी लिखा तो कुछ नए नवेले उत्साही डिजिटल मीडिया हाउसेज के लिए भी। हर हफ्ते नियम से फिल्म भी देखी और महीने में दो किताबें भी पढ़ी ताकि समीक्षाओं की सर्विस में कोई कमी न आए।बात रहने की करूँ तो घर और दफ्तर दोनों उस दिल्ली में है जहाँ मेरे कदम अब बहुत कम ही पड़ते हैं। हालांकि पत्राचार के लिए वही पता सबसे मुफ़ीद है जो इस website के contact us में दिया गया है।

2 Comments

  1. Mrs Sanju
    May 29, 2023 @ 6:58 PM

    उंची जाति को गाली देना एक तरीकालगता है ,जिससे मूवी या वेब सीरीज चर्चा मेन आ जाये।आपका रिव्यू बहुत सटीक होता है।

    Reply

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