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Azamgarh फिल्म ‘यूँ होता तो क्या होता’ का सही इस्तेमाल करती नज़र आती है

फिल्म Azamgarh की कहानी इस वॉयस ओवर से शुरु होती है कि 21वीं सदी की शुरुआत में दे-दनादन आतंकी हमले हो रहे हैं। इसी बीच आजमगढ़ का एक लड़का, आमिर (अनुज शर्मा) 12वीं में यूपी टॉप करता है पर उसी रोज़ आज़मगढ़ का एक मौलवी अशरफ अली (पंकज त्रिपाठी) दिल्ली से गिरफ्तार किया जाता है। मौलवी पर इल्ज़ाम है कि यह भोले भाले लड़कों को बहला-फुसलाकर जेहादी बना देता है।

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अब आमिर का भी मज़ाक बनता है कि वह पढ़ लिखकर क्या करेगा? आतंकी ही तो बनेगा? उसकी अम्मी (अमिता वालिया) बेसन के लड्डू भी बनाकर रखती हैं पर… मुहल्ले की सारी फुटेज अशरफ आली न्यूज़ ले जाती है।

यहाँ से आमिर बिना कुछ बोले पहले अलीगढ़ फिर दिल्ली जाता है और आतंकी बन जाता है। यहाँ आदिल इसको ट्रेनिंग देता है, आमिर शहर-शहर जाकर बॉम्ब ब्लास्ट करता है और फ़ेमस हो जाता है।

इधर इन्स्पेक्टर (रामजी बाली) अम्मी से इंटेरोगेशन शुरु कर देते हैं।

azamgarh

इस 90 मिनट की फिल्म में पंकज त्रिपाठी के बड़ी हद 4 या 5 सीन्स हैं। इन पाँचों सीन्स में सिर्फ पंकज त्रिपाठी ही एक्टिंग करते नज़र आए हैं। मुख्यतः फिल्म अनुज शर्मा के कंधों पर थी, पर अनुज शुरुआत से ही मिसफिट लगते हैं, 12वीं पास करके आए यूपी अनुज उतने ही टीनएजर लगते हैं जितने इफ़तेखार चाचू 32 साल के लगते हैं।

अमिता वालिया के एक्स्प्रेशन, उनके संवाद, बढ़िया बने हैं। पुलिस वाले बने रामजी बाली भी अच्छे एक्स्प्रेशन देते हैं।

आदिल, मिस्टर हर्डली और मुहम्मद कासिम हार्डली ही एक्टिंग कर पाते हैं। एक सीन है जब पंकज त्रिपाठी अशरफ अली बने कासिम नामक किरदार को थप्पड़ मारते हैं, फिर उसके बाल पकड़कर झँझोड़ देते हैं, फिर उसे पुचकार गले भी लगाते हैं, इस सीन में अनुज शर्मा और आदिल का किरदार निभाने वाले यूँ गुमसुम बैठे हैं जैसे उन्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता है।

निर्देशन की बात करूँ तो सीमित बजट में कमलेश के मिश्रा ने बढ़िया सीन बनाए हैं पर औसत कलाकारों की वजह से सीन्स वो इंपेक्ट डालने में कामयाब नहीं हो सके हैं, जिसकी उम्मीद की जा सकती है।

न्यूज़ फ्लैश का बार-बार फुल-स्क्रीन आना भी थोड़ा परेशान करता है, पर बैकग्राउन्ड म्यूजिक और सिनिमटाग्रफी सुकून भी देते हैं।

इस 90 मिनट की फिल्म को देखने की सिर्फ एक ही असाधारण वजह सामने आती है – और वो है इसकी कहानी। इसकी कहानी जहाँ अंत होती है, वहाँ हर एक भारतीय के मुँह से निकल सकता है कि ‘वाह, यही होना चाहिए था’

इसकी कहानी का अंत ऐसा है कि क्या हिन्दू क्या मुसलमान, दोनों साथ मिलकर कह सकते हैं कि ये होना चाहिए, ऐसा हिम्मती किरदार असल ज़िंदगी में भी होना चाहिए।

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बदबाकी फिल्म पुरानी है, नए ओटीटी प्लेटफॉर्म मास्क टीवी द्वारा दर्शकों तक पहुँचने में बहुत समय लगा है, इसलिए पुरानापन इसमें झलकता है। इसी कहानी पर, अच्छे बजट के साथ, बेहतर dialogues के साथ फिर एक फिल्म नैशनल लेवल पर रिलीज़ हो तो ब्लॉकबस्टर हो सकती है।

फिल्म देखने के लिए आप इस लिंक का इस्तेमाल कर सकते हैं

PS 2 – Conspiracy theories का सुपर-मार्केट है ये फिल्म

 सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’


सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'

मैं सिद्धार्थ उस साल से लिख रहा हूँ जिस साल (2011) भारत ने वर्ल्डकप जीता था। इस ब्लॉगिंग के दौर में कुछ नामी समाचार पत्रों के लिए भी लिखा तो कुछ नए नवेले उत्साही डिजिटल मीडिया हाउसेज के लिए भी। हर हफ्ते नियम से फिल्म भी देखी और महीने में दो किताबें भी पढ़ी ताकि समीक्षाओं की सर्विस में कोई कमी न आए।बात रहने की करूँ तो घर और दफ्तर दोनों उस दिल्ली में है जहाँ मेरे कदम अब बहुत कम ही पड़ते हैं। हालांकि पत्राचार के लिए वही पता सबसे मुफ़ीद है जो इस website के contact us में दिया गया है।

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