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हर इंसान चाहता है वो कुछ अच्छा पढ़े, कुछ ऐसा पढ़े जो रोचक हो और मेरे इस खोज पर विराम लगा सत्य व्यास की किताब “बागी बलिया” से। हालांकि, गंगा के उस पार है उनका बिहार और इस पार हमारा बिहार मतलब गंगा बॉर्डर लाइन है। दोनों राज्यों की इस नाते बलिया में बहुत हद तक भोजपुरियत मिली हुई है इसलिए भी बलिया दिल के करीब है। मुझे उम्मीद थी की वो ही भोजपुरीयत मुझे इस किताब में मिलेगी और वही हुआ, भोजपुरीयत समेटे हुए ये किताब बलिया के परिदृश्य को भली भांति प्रस्तुत करती है। सच पूछो तो मैंने ये किताब टाइटल देख के ही खरीदी थी “बागी बलिया”

सत्य व्यास की ये दूसरी किताब थी जो मैं पढ़ रही हूँ। इसके पहले बस “बनारस टॉकीज” पढ़ी थी और उस किताब के बाद से ही मैं सत्य व्यास की एक चीज में प्रशंसक हो गई और वो है इनका रिसर्च। चाहे “बनारस टॉकीज” हो या “बागी बलिया” सत्य व्यास रिसर्च भरपूर किए हैं। बलिया के एक एक घाट का सुदृष्य वर्णन हो या फिर गाजीपुर जिले के अंतर्गत आने वाले छोटे से जगह सैदपुर भीतरी का वर्णन हो, अपने गहन रिसर्च से सत्य व्यास उपन्यास को और रोचक बनाते हैं। पढ़कर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सत्य व्यास स्वयं बलिया के निवासी हों।

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कहानी शुरू होती है दो दोस्त रफीक और संजय से। आपके मन में भी यही ख्याल कौंध गया ना कि हिंदू–मुस्लिम परिपाटी पर कहानी लिखा गया है। मेरे जहन में भी पहला ख्याल यही आया था, लेकिन मैं गलत थी। पूरे किताब में हिंदू–मुस्लिम एकता को बहुत ही खूबसूरती से दिखाया गया है और कुछ भी नहीं। कहानी राजनीति पर आधारित है। संजय कालेज के अध्यक्ष का चुनाव लड़ना चाहता है और इसी के सिलसिले में भावी विधायक प्रत्याशी झुन्नू के यहां रफीक के साथ जाता है। दोनों धक्के खा कर वापस चले आते हैं क्यो‌ंकी झुन्नू भईया अपना आशीर्वाद पहले ही किसी और प्रत्याशी अनुपम राय को दे चुके होते हैं। अपने आत्मसम्मान पर इस ठेस को रफीक और संजय सह नहीं पाते और फैसला करते हैं कि झुन्नू भईया के आशीर्वाद के बिना ही चुनाव लडेंगे और जीतेंगे और फिर शुरू होता हैं दाव पेंच का खेल जो पढ़ने योग्य है। सबकुछ सामान्य चल रहा होता है कभी हंसी मजाक के दृश्य बुनती सत्य व्यास की लाइन तो कभी प्रेम में डूबी रफीक के मोहब्बत की लकीरों का सिलसिला चल ही रहा होता है कि एक दिन संजय की चचेरी बहन ज्योति गायब हो जाती है और किसी कारण से रफीक और उसकी गर्लफ्रेंड के बीच नफरत की लकीरें खींच जाती हैं। अब ये क्यो‌ं होता है और कैसे होता है ये पढ़ कर पता कीजिए।

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भाषा शैली की बात की जाए तो वो साधारण है बीच–बीच में भोजपुरी के संवाद मुझे प्रभावित करते हैं। जैसे- ‘का करबे मोबाइल’ या फिर भोजपुरी का एक कहावत है- ‘बाप के नाम साग पात बेटा के नाम परोरा’ जिसका मतलब है कि बाप एकदम निम्न दर्जे के हैं जैसे साग पात और बेटा बनने चले परोरा मतलब परवल। सब्जियों में परवल का भी एक अलग दर्जा हैबीच में एक आध भारी–भरकम डायलॉग भी है और सबसे बड़ी बात किताब त्रुटि रहित है। काफी ध्यान से पढ़ने के बाद भी 1–2 जगह ही त्रुटि मिली।

किताब का कवर मुझे कुछ खास पसंद नहीं आया। पन्ने कुल जमा ये हैं कि कुछ अच्छा कुछ रोचक पढ़ना चाहते हैं तो ये किताब ले सकते हैं।
मैं इस किताब को 10 में 8 रेटिंग दूंगी। मुझे यह किताब साहित्य विमर्श पर 100 रुपए में मिली थी कोशिश कीजिए आपको भी शायद कहीं डिस्काउंट में मिल जाए।

Priya (Kissa Cafe)


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