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(Anand) आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।

आदित्यांशु (Digital illustrator – cover artist) ने facebook पर Anand के बारे में बहुत खूबसूरत लेख लिखा था। लेख इतना असरदार था कि मुझे 90 के अंतिम सालों का बीता समय याद आ गया।

मेरा बचपन नानी के घर में बीता था। पापा जहाँ केबल टीवी के शौकीन, सिनेमा hall में फिल्म देखने वाले, हर फिल्मी magazine पढ़ने के रसिया थे वहीं नानी के घर में मनोरंजन का इकलौता साधन बस दूरदर्शन के दो चैनल थे। DD1 और DD2

अब डीडी1 की बाइस्कोप में अगर 2000 के बाद पैदा हुए बच्चे फिल्म देखने बैठते तो रोज़ एक टीवी तोड़ते। कारण? इसमें सोमवार, मंगलवार और बुद्धवार को एक-एक घंटे की फिल्म, तीन पीसेस में दिखाई जाती थी।

भसड़ ये थी कि हर फिल्म तो 3 घंटे की होती नहीं थी, लेकिन डीडी के पास 1 घंटे की फिल्म और 22 मिनट्स विज्ञापन के लिए सुरक्षित होते थे। अब Anand मात्र 2 घंटे की फिल्म है और इसको तीन दिन में दिखाने के लिए सोचिए, just imagine कीजिए दूरदर्शन वालों ने कितना टॉर्चर किया होगा?

अच्छा अमेरिकन टेलिविज़न चैनल ABC, HBO, आदि भी विज्ञापन के साथ फिल्म दिखाते हैं, लेकिन उनके विज्ञापन या series को ध्यान में रखकर डाले जाते हैं। मसलन एक सीन शुरु हुआ, वो 8 मिनट का सीन है तो पहला सीन खत्म होने के बाद विज्ञापन होंगे।

पर डीडी वालों का ad चलाने का तौर देखिए..

अभी डॉक्टर कुलकर्णी और डॉक्टर बैनर्जी बात कर रहे हैं; “कुलकर्णी उनको कोई बीमारी थी ही नहीं, उन्हें बस..”

“हाँ हाँ जानता हूँ तुम क्या कहोगे? तुम यही कहोगे न कि इनको थोड़ी सैर करनी चाहिए, खाने पीने पर..

(music) “हो हेमा, रेखा, दया और सुषमा, सबकी पसंद निरमाaaaaaaaa… निरमा”

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तो कुछ इस तरह से मैंने शायद 1999 में पहली बार Anand देखनी शुरु की और जहाँ तक मुझे याद है, Anand से ज़्यादा मैंने हेमा रेखा दया और सुषमा को देख लिया। मंगलवार का बाइस्कोप खत्म होते-होते मुझे लगा इससे तो कोई हॉलिवुड की alien वाली फिल्म या अक्षय कुमार की मार धाड़ वाली फिल्म देख लेते।

पर बुद्धवार को, आनंद खत्म होने लगी तो मैंने गौर किया, नानी की आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे। मैं उन बच्चों में से था जो माँ को छोड़ नानी की गोदी इम्पॉर्टन्ट समझता था, तो नानी को रोते देख मैं भी रो दिया।

अब ये बात मन में बस गई, कि Anand तो ठीक से देखनी है और जैसे तैसे करके समझनी भी है।

फिर 2001 से, बिना नागा मैंने साल में कम से कम एक बार Anand ज़रूर देखी, ज़्यादा से ज़्यादा का कोई रिकार्ड नहीं है। अच्छा जितनी बार देखी, अंत में उतनी ही बार रोया। एक बार भी आँसुओं से छुट्टी नहीं मिली।

मुझे दोस्तों या भाई के साथ फिल्म देखते हुए बड़ी बड़ी महान फिल्मों की भद्द पीटने में बहुत मज़ा आता है। लेकिन आनंद के मामले में मैं ये अपराध कभी न कर सका।

जब एनर्टैन्मन्ट कंटेन्ट राइटिंग में सीरीअस हुआ तो Anand के बारे में बहुत सी बाते जानीं।

मसलन, आनंद जापानी फिल्म इकुरु की रीमेक थी। ऋषिकेश मुखर्जी अपने दोस्त राजकपूर के लिए ये फिल्म बना रहे थे। एक समय था जब राज साहब बीमार थे, लगा था अब नहीं बचेंगे, तब वो ऋषि दा को बाबू मोशाय ही कहते थे।

मसलन, इस फिल्म के बाद अमिताभ बच्चन को लोग चेहरा देख पहचानने लगे थे, ऑटोग्राफ मांगने लगे थे।
मसलन ये इकलौती फिल्म थी जिसमें गुलज़ार साहब के लीरिक्स होते हुए भी, उनके अलावा किसी गीतकार, मेरे प्रिय स्वर्गीय योगेश गौड़ जी के लिखे गाने ज़्यादा demanding हिट हुए थे।

मसलन ये भी कि योगेश जी ने “कहीं दूर जब दिन ढल जाए, ऋषि दा के लिए नहीं बल्कि नबयेन्दु चटर्जी (नाम में कॉफ्यूजन) के लिए लिखे थे, कुछ सौ में इसकी फीस ली थी और फिल्म इंडस्ट्री से तंग होकर लखनऊ लौट गए थे।

लेकिन ये गाना आगे ऋषि दा ने खरीदा था और सलिल चौधरी जैसे ग्रेटेस्ट म्यूजिशियन के सजेशन पर ज़िंदगी कैसी ये पहेली.. योगेश जी से ही लिखवाया था और चार्टबस्टर हुआ था पर फिल्मफेयर पुरस्कार हसरत जयपुरी (ज़िंदगी एक सफर है सुहाना) ले गए थे और यहाँ nominate होकर भी award न मिलना, योगेश जी पर बहुत भारी गुज़रा था। (जबकि फिल्म को 6 फिल्मफेयर मिले थे जिसमें गुलज़ार साहब को best dialog के लिए मिला अवॉर्ड भी शामिल था)

anand

खैर, facts तो आपको किसी मासिक रिसाला में भी मिल जाएंगे लेकिन नहीं मिलेगा तो ये जवाब कि आनंद देखनी क्यों ज़रूरी है?

क्यों Anand देखकर हर बार रोना आता है?

क्यों पूरी फिल्म में बकबक करते Anand के चुप होते ही आँखें बहने लगती हैं?

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तो इसका जवाब है कि आनंद हमें दो घंटे में बड़े आराम से समझा जाता है कि ये ज़िंदगी चाहें आपको कितनी ही कीमती लगे, इसका अंत निश्चित है। ये फिल्म उन लोगों के लिए एक रिमाइंडर है जिन्हें लगता है कि वो अमर हैं, उन्हें कभी शमशान की लकड़ियाँ नहीं नसीब होंगी।

ये फिल्म एक यात्रा है दोस्त, एक अंतिम यात्रा, एक मंच है जो बता रहा है कि उसका अंत निश्चित है, जो बता रहा है कि आपका अंत निश्चित है। अब ये आपके हाथ में है कि आप ये बचा समय चिंता करते बैनर्जी की तरह बिताते हो या..

आनंद बन के आनंद के साथ बिताते हो।

क्योंकि आनंद तो कभी मरते नहीं, आनंद कभी मर ही नहीं सकते!

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सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’

 


सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'

मैं सिद्धार्थ उस साल से लिख रहा हूँ जिस साल (2011) भारत ने वर्ल्डकप जीता था। इस ब्लॉगिंग के दौर में कुछ नामी समाचार पत्रों के लिए भी लिखा तो कुछ नए नवेले उत्साही डिजिटल मीडिया हाउसेज के लिए भी। हर हफ्ते नियम से फिल्म भी देखी और महीने में दो किताबें भी पढ़ी ताकि समीक्षाओं की सर्विस में कोई कमी न आए।बात रहने की करूँ तो घर और दफ्तर दोनों उस दिल्ली में है जहाँ मेरे कदम अब बहुत कम ही पड़ते हैं। हालांकि पत्राचार के लिए वही पता सबसे मुफ़ीद है जो इस website के contact us में दिया गया है।

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